अनुसूचित जाति-जनजाति आरक्षण में कोटे में कोटा मंजूर

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0 सुप्रीम कोर्ट ने अपना 19 साल पुराना फैसला पलटा
0 कहा-आरक्षण के लिए एससी, एसटी का उप वर्गीकरण कर सकती हैं सरकारें 
0 राज्य आरक्षण में सब कैटेगरी बना सकते हैं
नई दिल्ली। राज्य सरकारें अब अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में कोटे में कोटा दे सकेंगी। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (1 अगस्त) को इस बारे में बड़ा फैसला सुनाया। अदालत ने 20 साल पुराना अपना ही फैसला पलटा है। तब कोर्ट ने कहा था कि अनुसूचित जातियां खुद में एक समूह हैं, इसमें शामिल जातियों के आधार पर और बंटवारा नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने अपने नए फैसले में राज्यों के लिए जरूरी हिदायत भी दी है। कहा है कि राज्य सरकारें मनमर्जी से फैसला नहीं कर सकतीं। इसके लिए दो शर्तें होंगी। पहली अनुसूचित जाति के भीतर किसी एक जाति को 100% कोटा नहीं दे सकतीं। दूसरी अनुसूचित जाति में शामिल किसी जाति का कोटा तय करने से पहले उसकी हिस्सेदारी का पुख्ता डेटा होना चाहिए।
फैसला सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संविधान पीठ का है। इसमें कहा गया कि अनुसूचित जाति को उसमें शामिल जातियों के आधार पर बांटना संविधान के अनुच्छेद-341 के खिलाफ नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला उन याचिकाओं पर सुनाया है, जिनमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षण का फायदा उनमें शामिल कुछ ही जातियों को मिला है। इससे कई जातियां पीछे रह गई हैं। उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए कोटे में कोटा होना चाहिए। इस दलील के आड़े 2004 का फैसला आ रहा था, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जातियों को सब-कैटेगरी में नहीं बांट सकते।

उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में ‘पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम 2006’ को बरकरार रखते हुए कहा कि नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले में आरक्षण के भीतर आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) का उप-वर्गीकरण किया जा सकता है।
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ तथा न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी, न्यायमूर्ति पंकज मिथल, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की संविधान पीठ ने छह-एक के बहुमत वाले अपने फैसले में पंजाब के अलावा तमिलनाडु और अन्य राज्यों में इस तरह के उप-वर्गीकरण के लिए कानून की वैधता को बरकरार रखा।
न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने बहुमत से असहमति वाला फैसला सुनाते हुए कहा कि इस तरह का उप-वर्गीकरण स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
इस मामले में छह अलग-अलग राय दी गईं। फैसले के अंश पढ़ते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ऐतिहासिक और अनुभवजन्य साक्ष्य संकेत देते हैं कि अनुसूचित जाति एक समरूप वर्ग नहीं है। उन्होंने कहा कि एससी के भीतर उप वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है।
शीर्ष अदालत ने पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम 2006 की वैधता से संबंधित एक मामले पर विचार करने के बाद अपना यह फैसला सुनाया। इस अधिनियम में आरक्षित श्रेणी के समुदायों का उप-वर्गीकरण करने का प्रावधान है।
संविधान पीठ ने पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 को बरकरार रखा।

शीर्ष अदालत ने गुरुवार को फैसला सुनाते हुए ऐसे मामले में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के 2004 के फैसले को खारिज कर दिया। संविधान पीठ ने ‘ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य’ के 2004 के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि एससी/एसटी का उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 341 के विपरीत है।
पीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि व्यवस्थागत भेदभाव के कारण एससी/एसटी के सदस्य अक्सर आगे नहीं बढ़ पाते हैं। अनुच्छेद 14 जाति के उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है। यह जांचना चाहिए कि क्या कोई वर्ग समरूप है या नहीं और किसी उद्देश्य के लिए एकीकृत न किए गए वर्ग को आगे वर्गीकृत किया जा सकता है।

फैसले के मायने
राज्य सरकारें अब राज्यों में अनुसूचित जातियों में शामिल अन्य जातियों को भी कोटे में कोटा दे सकेंगी। यानी अनुसूचित जातियों की जो जातियां वंचित रह गई हैं, उनके लिए कोटा बनाकर उन्हें आरक्षण दिया जा सकेगा। 2006 में पंजाब ने अनुसूचित जातियों के लिए निर्धारित कोटे के भीतर वाल्मीकि और मजहबी सिखों को सार्वजनिक नौकरियों में 50% कोटा और पहली वरीयता दी थी।

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